Discoverहिन्दी कहानियाँ Hindi Storyचप्पल (हिंदी कहानी) : कमलेश्वर || Chappal (Hindi Story) : Kamleshwar
चप्पल (हिंदी कहानी) : कमलेश्वर || Chappal (Hindi Story) : Kamleshwar

चप्पल (हिंदी कहानी) : कमलेश्वर || Chappal (Hindi Story) : Kamleshwar

Update: 2022-12-28
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Description

कहानी बहुत छोटी सी है मुझे ऑल इण्डिया मेडिकल इंस्टीटयूट की सातवीं मंज़िल पर जाना था। अाई०सी०यू० में गाड़ी पार्क करके चला तो मन बहुत ही दार्शनिक हो उठा था। क़ितना दु:ख और कष्ट है इस दुनिया में...लगातार एक लड़ाई मृत्यु से चल रही है...अौर उसके दु:ख और कष्ट को सहते हुए लोग -- सब एक से हैं। दर्द और यातना तो दर्द और यातना ही है -- इसमें इंसान और इंसान के बीच भेद नहीं किया जा सकता। दुनिया में हर माँ के दूध का रंग एक है। ख़ून और आंसुओं का रंग भी एक है। दूध, खून और आँसुओं का रंग नहीं बदला जा सकता...शायद उसी तरह दु:ख़, कष्ट और यातना के रंगों का भी बँटवारा नहीं किया जा सकता। इस विराट मानवीय दर्शन से मुझे राहत मिली थी.... मेरे भीतर से सदियाँ बोलने लगी थीं। एक पुरानी सभ्यता का वारिस होने के नाते यह मानसिक सुविधा ज़रूर है कि तुम हर बात, घटना या दुर्घटना का कोई दार्शनिक उत्तर खोज सकते हो। समाधान चाहे न मिले, पर एक अमूर्त दार्शनिक उत्तर ज़रूर मिल जाता है।

और फिर पुरानी सभ्यताओं की यह खूबी भी है कि उनकी परम्परा से चली आती संतानों को एक आत्मा नाम की अमूर्त शक्ति भी मिल गई है -- और सदियों पुरानी सभ्यता मनुष्य के क्षुद्र विकारों का शमन करती रहती है...एक दार्शनिक दृष्टि से जीवन की क्षण-भंगुरता का एहसास कराते हुए सारी विषमताओं को समतल करती रहती है...

मुझे अपने उस मित्र की बातें याद आईं जिसने मुझे संध्या के संगीन ऑपरेशन की बात बताई थी ओर उसे देख आने की सलाह दी थी। उसी ने मुझे आई०सी०यू० में संध्या के केबिन का पता बताया था -- आठवें फ्लोर पर ऑपरेशन थिएटर्स हैं और सातवें पर संध्या का आ०सी०यू०। मेजर ऑपेरशन में संध्या की बड़ी आँत काटकर निकाल दी गई थी और अगले अड़तालीस घण्टे क्रिटिकल थे...

रास्ता इमरजेंसी वार्ड से जाता था। एक बेहद दर्द भरी चीख़ इमरजेंसी वार्ड से आ रही थी... वह दर्द-भरी चीख़ तो दर्द-भरी चीख़ ही थी-- कोई घायल मरीज असह्य तकलीफ़ से चीख़ रहा था। उस चीख़ से आत्मा दहल रही थी... दर्द की चीख़ और दर्द की चीख़ में क्या अन्तर था! दूध, ख़ून और आँसुओं के रंगों की तरह चीख़ की तकलीफ़ भी तो एक-सी थी। उसमें विषमता कहाँ थी?...

मेरा वह मित्र जिसने मुझे संध्या को देख आने की फ़र्ज अदायगी के लिए भेजा था,वह भी इलाहाबाद का ही था। वह भी उसी सदियों पुरानी सभ्यता का वारिस था। ठेठ इलाहाबादी मौज में वह भी दार्शनिक की तरह बोला था-- अपना क्या है ? रिटायर हाने के बाद गंगा किनारे एक झोपड़ी डाल लेंगे। आठ-दस ताड़ के पेड़ लगा लेंगे... मछली मारने की एक बंसी...दो चार मछलियाँ तो दोपहर तक हाथ आएँगी ही... रात भर जो ताड़ी टपकेगी उसे फ्रिज में रख लेंगे...

--फ्रिज में ?

-- और क्या... माडर्न साधू की तरह रहेंगे ! मछलियां तलेंगे, खाएँगे और ताड़ी पीएँगे...और क्या चाहिए... पेंशन मिलती रहेगी। और माया-मोह क्यों पालें? पालेंगे तो प्राण अटके रहेंगे... ताड़ी और मछली... बस, आत्मा ताड़ी पीकर, मछली खाके आराम से महाप्रस्थान करे... न कोई दु:ख, न कोई कष्ट... लेकिन तुम जाके संध्या को देख ज़रूर आना...वो क्रिटिकल है...

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2022-01-2801:51

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Rajesh Kumar